Lekhika Ranchi

Add To collaction

रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


...

प्रभु सेवक-मैंने इसे मसीह के आदेशों का उल्लंघन करते कभी नहीं देखा।
सोफ़िया-धार्मिक विषयों में मैं अपनी विवेक-बुध्दि के सिवा और किसी के आदेशों को नहीं मानती।
मिसेज़ सेवक-मैं तुझे अपनी संतान नहीं समझती, और तेरी सूरत नहीं देखना चाहती।
यह कहकर सोफ़िया के कमरे में धुस गईं, और उसकी मेज पर से बौध्द-धर्म और वेदांत के कई ग्रंथ उठाकर बाहर बरामदे में फेंक दिए! उसी आवेश में उन्हें पैरों से कुचला और जाकर ईश्वर सेवक से बोलीं-पापा, आप सोफी को नाहक बुला रहे हैं, वह प्रभु मसीह की निंदा कर रही है।
मि. ईश्वर सेवक ऐसे चौंके, मानो देह पर आग की चिनगारी गिर पड़ी हो, और अपनी ज्योति-विहीन आँखों को फाड़कर बोले-क्या कहा, सोफी प्रभु मसीह की निंदा कर रही है! सोफी?
मिसेज़ सेवक-हाँ-हाँ, सोफी। कहती है, मुझे उनकी विभूतियों पर, उनके उपदेशों और आदेशों पर, विश्वास नहीं है।
ईश्वर सेवक-(ठंडी साँस खींचकर) प्रभु मसीह, मुझे अपने दामन में छुपा, अपनी भटकती हुई भेड़ों को सच्चे मार्ग पर ला। कहाँ है सोफी? मुझे उसके पास ले चलो, मेरे हाथ पकड़कर उठाओ। खुदा, मेरी बेटी के हृदय को अपनी ज्योति से जगा। मैं उसके पैरों पर गिरूँगा, उसकी मिन्नतें करूँगा; उसे दीनता से समझाऊँगा। मुझे उसके पास तो ले चलो।
मिसेज़ सेवक-मैं सब कुछ करके हार गई। उस पर खुदा की लानत है। मैं इनका मुँह नहीं देखना चाहती।
ईश्वर सेवक-ऐसी बातें न करो। वह मेरे खून का खून, मेरी जान की जान, मेरे प्राणों का प्राण है। मैं उसे कलेजे से लगाऊँगा। प्रभु मसीह ने विधर्मियों को छाती से लगाया था, कुकर्मियों को अपने दामन में शरण दी थी, वह मेरी सोफ़िया पर अवश्य दया करेंगे। ईसू, मुझे अपने दामन में छुपा।
जब मिसेज़ सेवक ने अब भी सहारा न दिया, तो ईश्वर सेवक लकड़ी के सहारे उठे और लाठी टेकते हुए सोफ़िया के कमरे में द्वार पर आकर बोले-बेटी सोफी, कहाँ है? इधर आ बेटी, तुझे गले से लगाऊँ। मेरा मसीह खुदा का दुलारा बेटा था, दीनों का सहायक, निर्बलों का रक्षक, दरिद्रों का मित्र, डूबतों का सहारा, पापियों का उध्दारक, दुखियों का पार लगानेवाला! बेटी, ऐसा और कौन-सा नबी है, जिसका दामन इतना चौड़ा हो, जिसकी गोद में संसार के सारे पापों, सारी बुराइयों के लिए स्थान हो? वही एक ऐसा नबी है, जिसने दुरात्माओं को, अधर्मियों को, पापियों को मुक्ति की शुभ सूचना दी, नहीं तो हम-जैसे मलिनात्माओं के लिए मुक्ति कहाँ थी? हमें उबारनेवाला कौन था?

यह कहकर उन्होंने सोफी को हृदय से लगा लिया। माता के कठोर शब्दों ने उसके निर्बल क्रोध को जागृत कर दिया था। अपने कमरे में आकर रो रही थी, बार-बार मन उद्विग्न हो उठता था। सोचती थी, अभी, इसी क्षण, इस घर से निकल जाऊँ। क्या इस अनंत संसार में मेरे लिए जगह नहीं है? मैं परिश्रम कर सकती हूँ, अपना भार आप सँभाल सकती हूँ। आत्मस्वातंत्रय का खून करके अगर जीवन की चिंताओं से निवृत्ति हुई, तो क्या? मेरी आत्मा इतनी तुच्छ वस्तु नहीं है कि उदर पालने के लिए उसकी हत्या कर दी जाए। प्रभु सेवक को अपनी बहन से सहानुभूति थी। धर्म पर उन्हें उससे कहीं कम श्रध्दा थी। किंतु वह अपने स्वतंत्र विचारों को अपने मन ही में संचित रखते थे। गिरजा चले जाते थे, पारिवारिक प्रार्थनाओं में भाग लेते थे; यहाँ तक कि धार्मिक भजन भी गा लेते थे। वह धर्म को गम्भीर विचार के क्षेत्र से बाहर समझते थे। वह गिरजा उसी भाव से जाते थे, जैसे थिएटर देखने जाते। पहले अपने कमरे से झाँककर देखा कि कहीं मामा तो नहीं देख रही हैं; नहीं तो मुझ पर वज्र-प्रहार होने लगेंगे। तब चुपके से सोफ़िया के पास आए और बोले-सोफी, क्यों, नादान बनती हो? साँप के मुँह में उँगली डालना कौन-सी बुध्दिमानी है? अपने मन में जो विचार रख, जिन बातों को जी चाहे, मानो; जिनको जी न चाहे, न मानो; पर इस तरह ढिंढोरा पीटने से क्या फायदा? समाज में नक्कू बनने की क्या जरूरत? कौन तुम्हारे दिल के अंदर देखने जाता है!

सोफ़िया ने भाई को अवहेलना की दृष्टि से देखकर कहा-धर्म के विषय में मैं कर्म को वचन के अनुरूप ही रखना चाहती हूँ। चाहती हूँ, दोनों से एक ही स्वर निकले। धर्म का स्वाँग भरना मेरी क्षमता से बाहर है। आत्मा के लिए मैं संसार के सारे दु:ख झेलने को तैयार हूँ। अगर मेरे लिए इस घर में स्थान नहीं है, तो ईश्वर का बनाया हुआ विस्तृत संसार तो है! कहीं भी अपना निर्वाह कर सकती हूँ। मैं सारी विडम्बनाएँ सह लूँगी, लोक-निंदा की मुझे चिंता नहीं है; मगर अपनी ही नजरों में गिरकर मैं जिंदा नहीं रह सकती। अगर यही मान लूँ कि मेरे लिए चारों तरफ से द्वार बंद है, तो भी मैं आत्मा को बेचने की अपेक्षा भूखों मर जाना कहीं अच्छा समझती हूँ।
प्रभु सेवक-दुनिया उससे कहीं तंग है, जितना तुम समझती हो।
सोफ़िया-कब्र के लिए तो जगह निकल ही आएगी।
सहसा ईश्वर सेवक ने जाकर उसे छाती से लगा लिया, और अपने भक्ति-गद्गद नेत्र-जल से उसके संतप्त हृदय को शांत करने लगे। सोफ़िया को उनकी श्रध्दालुता पर दया आ गई। कौन ऐसा निर्दय प्राणी है, जो भोले-भाले बालक के कठघोड़े का उपहास करके उसका दिल दु:खाए, उसके मधुर स्वप्न को विशृंखल कर दे?
सोफ़िया ने कहा-दादा, आप आकर इस कुर्सी पर बैठ जाएँ, खड़े-खड़े आपको तकलीफ होती है।
ईश्वर सेवक-जब तक तू अपने मुख से न कहेगी कि मैं प्रभु मसीह पर विश्वास करती हूँ, तब तक मैं तेरे द्वार पर, यों ही, भिखारियों की भाँति खड़ा रहूँगा।
सोफ़िया-दादा, मैंने यह कभी नहीं कहा कि मैं प्रभु ईसू पर ईमान नहीं रखती, या मुझे उन पर श्रध्दा नहीं है। मैं उन्हें महान् आदर्श पुरुष और क्षमा तथा दया का अवतार समझती हूँ, और समझती रहूँगी।
ईश्वर सेवक ने सोफ़िया के कपोलों का चुम्बन करके कहा-बस, मेरा चित्ता शांत हो गया। ईसू तुझे अपने दामन में लें। मैं बैठता हूँ, मुझे ईश्वर-वाक्य सुना, कानों को प्रभु मसीह की वाणी से पवित्र कर।
सोफ़िया इनकार न कर सकी। 'उत्पत्ति' का एक परिच्छेद खोलकर पढ़ने लगी। ईश्वर सेवक आँखें बंद करके कुर्सी पर बैठ गए और तन्मय होकर सुनने लगे। मिसेज़ सेवक ने यह दृश्य देखा और विजयगर्व से मुस्कराती हुई चली गईं।
यह समस्या तो हल हो गई; पर ईश्वर सेवक के मरहम से उसके अंत:करण का नासूर न अच्छा हो सकता था। आए-दिन उसके मन में धार्मिक शंकाएँ उठती रहती थीं और दिन-प्रतिदिन उसे अपने घर में रहना दुस्सह होता जाता था। शनै:-शनै: प्रभु सेवक की सहानुभूति भी क्षीण होने लगी। मि. जॉन सेवक को अपने व्यावसायिक कामों से इतना अवकाश ही न मिलता था कि उसके मानसिक विप्लव का निवारण करते। मिसेज़ सेवक पूर्ण निरंकुशता से उस पर शासन करती थीं। सोफ़िया के लिए सबसे कठिन परीक्षा का समय वह होता था, जब वह ईश्वर सेवक को बाइबिल पढ़कर सुनाती थी। इस परीक्षा से बचने के लिए वह नित्य बहाने ढूँढ़ती रहती थी। अत: अपने कृत्रिम जीवन से उसे घृणा होती जाती थी। उसे बार-बार प्रबल अंत:प्रेरणा होती कि घर छोड़कर कहीं चली जाऊँ और स्वाधीनता होकर सत्यासत्य की विवेचना करूँ; पर इच्छा व्यवहार-क्षेत्र में पैर रखते हुए संकोच से विवश हो जाती थी। पहले प्रभु सेवक से अपनी शंकाएँ प्रकट करके वह शांत-चित्ता हो जाया करती थी; पर ज्यों-ज्यों उनकी उदासीनता बढ़ने लगी; सोफ़िया के हृदय से भी उनके प्रति प्रेम और आदर उठने लगा। उसे धारणा होने लगी कि इनका मन केवल भोग और विलास का दास है, जिसे सिध्दांतों से कोई लगाव नहीं। यहाँ तक कि उनकी काव्य-रचनाएँ भी, जिन्हें वह पहले बड़े शौक से सुना करती थी, अब उसे कृत्रिम भावों से परिपूर्ण मालूम होतीं। वह बहुधा टाल दिया करती कि मेरे सिर में दर्द है, सुनने को जी नहीं चाहता। अपने मन में कहती, इन्हें उन सद्भावों और पवित्र आवेगों को व्यक्त करने का क्या अधिकार है, जिनका आधार आत्म-दर्शन और अनुभव पर न हो।
एक दिन जब घर से सब प्राणी गिरजाघर जाने लगे, तो सोफ़िया ने सिरदर्द का बहाना किया। अब तक वह शंकाओं के होते हुए भी रविवार को गिरजाघर चली जाया करती थी। प्रभु सेवक उसका मनोभाव ताड़ गए, बोले-सोफी गिरजा जाने में तुम्हें क्या आपत्ति है? वहाँ जाकर आधा घंटे चुपचाप बैठे रहना कोई ऐसा मुश्किल काम नहीं।
प्रभु सेवक बड़े शौक से गिरजा जाया करते थे, वहाँ उन्हें बनाव और दिखाव, पाखंड और ढकोसलों की दार्शनिक मीमांसा करने और व्यंग्योक्तियों के लिए सामग्री जमा करने का अवसर मिलता था। सोफ़िया के लिए आराधना विनोद की वस्तु नहीं, शांति और तृप्ति की वस्तु थी। बोली-तुम्हारे लिए आसान हो, मेरे लिए मुश्किल ही है।
प्रभु सेवक-क्यों अपनी जान बवाल में डालती हो? मामा का स्वभाव तो जानती हो।
सोफ़िया-मैं तुमसे परामर्श नहीं चाहती, अपने कामों की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने को तैयार हूँ!
मिसेज़ सेवक ने आकर पूछा-सोफी, क्या सिर में दर्द इतना है कि गिरजे तक नहीं चल सकतीं?
सोफ़िया-जा क्यों नहीं सकती; पर जाना नहीं चाहती।
मिसेज़ सेवक-क्यों?
सोफ़िया-मेरी इच्छा। मैंने गिरजा जाने की प्रतिज्ञा नहीं की है।
मिसेज़ सेवक-क्या तू चाहती है कि हम कहीं मुँह दिखाने के लायक न रहें?
सोफ़िया-हरगिज नहीं, मैं सिर्फ इतना ही चाहती हूँ क आप मुझे चर्च जाने के लिए मजबूर न करें।
ईश्वर सेवक पहले ही अपने तामजान पर बैठकर चल दिए थे। जॉन सेवक ने आकर केवल इतना पूछा-क्या बहुत ज्यादा दर्द है? मैं उधर से कोई दवा लेता आऊँगा, जरा पढ़ना कम कर दो और रोज घूमने जाया करो।
यह कहकर वह प्रभु सेवक के साथ फ़िटन पर आ बैठे। लेकिन मिसेज़ सेवक इतनी आसानी से उसका गला छोड़ने वाली न थीं। बोलीं-तुझे ईसू के नाम से इतनी घृणा है?
सोफ़िया-मैं हृदय से उनकी श्रध्दा करती हूँ।
माँ-तू झूठ बोलती है।
सोफ़िया-अगर दिल में श्रध्दा न होती, तो जबान से कदापि न कहती।
माँ-तू प्रभु मसीह को अपना मुक्तिदाता समझती है? तुझे यह विश्वास है कि वही तेरा उध्दार करेंगे?
सोफ़िया-कदापि नहीं। मेरा विश्वास है कि मेरी मुक्ति, अगर मुक्ति हो सकती है, तो मेरे कर्मों से होगी।
माँ-तेरे कर्मों से तेरे मुँह में कालिख लगेगी, मुक्ति न होगी।

   1
0 Comments